Monday, 13 April 2015

कुछ यादें बचपन की


कल टेलिविजन आॅन किया तो एक बहुत पुरानी धुन और एक जानी पहचानी आवाज़ ने बांध सा लिया जैसे। टीवी पे तस्वीरें भी कुछ ऐसी थीं जो मन के किसी कोने को हल्के से छू गयीं। कागज़ की एक नाव चली जा रही थी, उसपर सवार मैं भी चल दी। नाव रुकी तो ख़ुद को आंगन में लगे मोगरे के उसी पेड़ के पास खड़ा पाया जहां से रोज़ सुबह नानी कुछ फूल तोड़ कर टीवी के ऊपर रख देतीं थीं। वो फूल दिन भर अपनी सौंधी-सौंधी ख़ुशबू से घर भर महकाते रहते थे।

आंगन के कोने में देखा तो कोई ज़मीन पर उकड़ू बैठा था, मम्मी थीं शायद। हाँ, मम्मी ही थीं। पंजो पर बैठकर, अखबार पर कटी हुई अमिया की फांके सुखा रही थीं, अचार के लिए। नमक लगी हुई, कुछ खट्टी कुछ मीठी अमिया खाने का मज़ा ही कुछ और था, और जो चुरा के खायी जाए तो कहने ही क्या। कुछ फांके उठाने चली ही थी कि घर के अंदर से कुछ मथने की आवाज़ आई। नानी होंगी, दही मथ रही होंगी। ताज़े मक्खन की खुशबू आ रही थी। मन हुआ कि और अंदर चलूं, यादों की कुछ और परतें खोलूं। रसोईघर के पास वाले कमरे में झांका, वहाँ आम और लीची का ढेर वैसे ही लगा हुआ था।

कोने में रखा पानी का मटका देख के लगा कि दो घड़ी वहीं बैठ जाऊँ, ठंडे मटके पर गाल टिका के थकान मिटा लूँ। पर अभी बहुत सी यादें टटोलनी थीं। बचपन के उस बक्से में झांकना था जिसमे कुछ किताबें, एक ताश की गड्डी, दो-चार कौड़ियाँ और कुछ रंगीन कागज़ रख छोड़े थे। रसोईघर की उस अलमारी को टटोलना था जहाँ नाना-नानी हर साल हम बहनों की पसंद के बिस्कुट और नमकीन ला कर रखते थे। अभी तो उस क्यारी में खेलना था जहाँ नाना हर शाम खुरपी लेकर बड़े प्यार से अपने पौधों की देखभाल करते थे। घर के पीछे वाले पेड़ से जामुन कहाँ तोड़े थे अभी। और वो बाग में आम का पेड़? उसके नीचे चारपाई पर बैठकर आम भी तो खाने थे। सोच की धारा के साथ बहते-बहते मैं चली जा रही थी कि तभी एक झटका लगा। यादों की वो नांव मुझे हाल में वापस ले आई थी। मेरी आंखें नम थीं और टीवी पर गुलज़ार साब की आवाज़ गूँज रही थी,

बचपन की यादों को फिर से बहाओ,
बड़ी चटपटी हैं ये फिर से पिलाओ।


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