मां के बगल में बैठी चंदा ट्रेन की खिड़की से पीछे जाते हुए पेड़ों को देख रही थी। क्या ये पेड़ भी हमारी तरह चलते हैं? उसने मन ही मन सोचा। और चलते हैं तो जाते कहाँ हैं? क्या उनका भी कोई अॉफ़िस होगा जहाँ सारे पेड़ मिलकर तय करते होंगे कि इस बार कौन सा फल उगाएंगे। काश वो भी उनके साथ जा पाती और उनसे कह पाती कि उसे आम बहुत पसंद हैं और वो पूरे साल आम उगाएं।
चंदा ये सब सोच ही रही थी कि तभी उसे एक चिड़िया नज़र आई, पूरी ताकत के साथ उड़ते हुए जैसे कहीं पहुँचने की जल्दी में हो। जैसे कोई ट्रेन छूटने वाली हो।और वो तितली जो अभी खिड़की के बाहर ट्रेन के साथ-साथ उड़ रही थी, क्या वो अगले स्टेशन पर सबकी तरह झट से ट्रेन में चढ़ पाएगी? एक बादल भी चल रहा था साथ-साथ। नीले आसमान की बड़ी सी प्लेट पर रखा बादल चंदा को बिल्कुल उसकी मनपसंद इक्कीम (आइसक्रीम) जैसा लगा, सफ़ेद और गुदगुदा। मन किया कि चम्मच लेकर चख ले थोड़ा सा। पर अभी नहीं, अभी तो वो स्कूल जा रही थी और सोच रही थी कि काश ये पेड़, ये चिड़िया, ये तितली और ये बादल भी उसके साथ चल पाते।
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Wednesday, 10 June 2015
Tuesday, 14 April 2015
गीली मिट्टी की ख़ुशबू
गीली मिट्टी की ख़ुशबू को petrichor कह दो तो कैसा बेग़ाना सा लगता है ना? एकदम फ़ीका सा, जैसे किसी ने शब्द का पूरा रस ही निचोड़ लिया हो। जो बात गीली मिट्टी से शुरू हो कर उसकी सौंधी-सौंधी ख़ुशबू तक पहुँचती है, वो petrichor कहने से एक लफ़्ज़ में ही ख़त्म हो जाती है। न कविता का रस आ पाता है और न ही पुरानी यादें ताज़ा हो पाती हैं। और यादों का धागा कहीं न कहीं भाषा से ज़रूर जुड़ा है। वो भाषा जो हम बोलते हुए बड़े हुए हैं, हमारी मातृभाषा।
मेरी मातृभाषा हिंदी है। हिंदी माध्यम में पढ़ी हूँ और हिंदी में ही सोचती हूँ। पर अब सिर्फ़ अंग्रेजी़ में ही लिखती हूँ। ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी से प्यार नहीं है। लेखिका हूँ और इस भाषा से तो अब मेरा जीवन जुड़ा है। अंग्रेजी मेरी कर्म भाषा है और हिंदी मेरी धर्म भाषा। जब दिल की बात कहनी होगी तो हिंदी में ही कहूंगी क्योंकि उसमें वही सौ़धापन है जो गीली मिट्टी की ख़ुशबू में है।
Monday, 13 April 2015
कुछ यादें बचपन की
कल टेलिविजन आॅन किया तो एक बहुत पुरानी धुन और एक जानी पहचानी आवाज़ ने बांध सा लिया जैसे। टीवी पे तस्वीरें भी कुछ ऐसी थीं जो मन के किसी कोने को हल्के से छू गयीं। कागज़ की एक नाव चली जा रही थी, उसपर सवार मैं भी चल दी। नाव रुकी तो ख़ुद को आंगन में लगे मोगरे के उसी पेड़ के पास खड़ा पाया जहां से रोज़ सुबह नानी कुछ फूल तोड़ कर टीवी के ऊपर रख देतीं थीं। वो फूल दिन भर अपनी सौंधी-सौंधी ख़ुशबू से घर भर महकाते रहते थे।
आंगन के कोने में देखा तो कोई ज़मीन पर उकड़ू बैठा था, मम्मी थीं शायद। हाँ, मम्मी ही थीं। पंजो पर बैठकर, अखबार पर कटी हुई अमिया की फांके सुखा रही थीं, अचार के लिए। नमक लगी हुई, कुछ खट्टी कुछ मीठी अमिया खाने का मज़ा ही कुछ और था, और जो चुरा के खायी जाए तो कहने ही क्या। कुछ फांके उठाने चली ही थी कि घर के अंदर से कुछ मथने की आवाज़ आई। नानी होंगी, दही मथ रही होंगी। ताज़े मक्खन की खुशबू आ रही थी। मन हुआ कि और अंदर चलूं, यादों की कुछ और परतें खोलूं। रसोईघर के पास वाले कमरे में झांका, वहाँ आम और लीची का ढेर वैसे ही लगा हुआ था।
कोने में रखा पानी का मटका देख के लगा कि दो घड़ी वहीं बैठ जाऊँ, ठंडे मटके पर गाल टिका के थकान मिटा लूँ। पर अभी बहुत सी यादें टटोलनी थीं। बचपन के उस बक्से में झांकना था जिसमे कुछ किताबें, एक ताश की गड्डी, दो-चार कौड़ियाँ और कुछ रंगीन कागज़ रख छोड़े थे। रसोईघर की उस अलमारी को टटोलना था जहाँ नाना-नानी हर साल हम बहनों की पसंद के बिस्कुट और नमकीन ला कर रखते थे। अभी तो उस क्यारी में खेलना था जहाँ नाना हर शाम खुरपी लेकर बड़े प्यार से अपने पौधों की देखभाल करते थे। घर के पीछे वाले पेड़ से जामुन कहाँ तोड़े थे अभी। और वो बाग में आम का पेड़? उसके नीचे चारपाई पर बैठकर आम भी तो खाने थे। सोच की धारा के साथ बहते-बहते मैं चली जा रही थी कि तभी एक झटका लगा। यादों की वो नांव मुझे हाल में वापस ले आई थी। मेरी आंखें नम थीं और टीवी पर गुलज़ार साब की आवाज़ गूँज रही थी,
बचपन की यादों को फिर से बहाओ,
बड़ी चटपटी हैं ये फिर से पिलाओ।
Friday, 27 May 2011
What the hell are we fighting for?
Of all kinds of writing I do, travelogues are something that I have always enjoyed. I love sharing those small but memorable incidents happened on the journey. I believe they always stay with you, more than the place itself.
One such incident happened while I was on the train from Mumbai to Gorakhpur (my home town). I was traveling with my husband, my sister and sister's husband. There was a couple in our compartment with their two kids. With their language and dialect they pretty much looked North Indians. More than the husband, the wife looked from north because of her sing-song tone. After a while we noticed her speaking in Marathi with her kids. The obvious guess was that she must've picked up the language in all these years she stayed in Mumbai.
After a lot of guessing and assumptions we finally decided to ask her whether she was a Maharashtriyan or a North Indian. Her reply came to us as a surprise. She was a Marathi and had picked up the accent from her husband who was a North Indian. Trust me, her accent, dialect whatever you call it was way better than any UPite or Bihari and the husband had a very Mumbaiya tone.
The whole incident made me think. Does a common man really care about people migrating from one city to other for work? Does aam junta appreciate the mas pooja conducted by Laloo Yadav or beatings of North Indians by MNS? I guess not. This is a country that unites for a Marathi cricketer who plays under a Bihari captain. So I think that the politicians should leave the language and let it be just a tool to communicate.
One such incident happened while I was on the train from Mumbai to Gorakhpur (my home town). I was traveling with my husband, my sister and sister's husband. There was a couple in our compartment with their two kids. With their language and dialect they pretty much looked North Indians. More than the husband, the wife looked from north because of her sing-song tone. After a while we noticed her speaking in Marathi with her kids. The obvious guess was that she must've picked up the language in all these years she stayed in Mumbai.
After a lot of guessing and assumptions we finally decided to ask her whether she was a Maharashtriyan or a North Indian. Her reply came to us as a surprise. She was a Marathi and had picked up the accent from her husband who was a North Indian. Trust me, her accent, dialect whatever you call it was way better than any UPite or Bihari and the husband had a very Mumbaiya tone.
The whole incident made me think. Does a common man really care about people migrating from one city to other for work? Does aam junta appreciate the mas pooja conducted by Laloo Yadav or beatings of North Indians by MNS? I guess not. This is a country that unites for a Marathi cricketer who plays under a Bihari captain. So I think that the politicians should leave the language and let it be just a tool to communicate.
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Sunday, 21 February 2010
अठन्नी सी ज़िन्दगी .....
आज बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने के लिए कलम उठाई तो समझ में नहीं आया कि क्या लिखूं, तो खिड़की पर जाके बैठ गयी। मेरे घर कि खिड़की से ज़िन्दगी के दो पहलू दिखते हैं। एक तरफ ऊंची असमान छूती तीस-पैंतीस मंजिला इमारतें और दूसरी तरफ कचरे के ढेर में फँसी, दूर-दूर तक फैली झोंपड़पट्टी, और इन दोनों के बीच में फँसी मैं और मेरे जैसे लाखों-करोडो लोग, मध्यमवर्गीय लोग। जिन्हें आप कौमन मैन यानि कि आम आदमी भी कह सकते हैं। कौन है ये आम आदमी? ये क्या करता है? क्यूँ करता है? किसके लिए करता है? ये आम आदमी वो प्राणी है जो टैक्स भरता है, कानून का पालन करता है, सरकार पर भरोसा करता है और डरता है, पुलिस से, नेताओं से, गुंडों से। यूँ तो वो ये सब इसलिए करता है, ताकि अपनी ज़िन्दगी शांति से बिता सके पर जब बाढ़ आती है, बम फटते हैं, महंगाई बढती है तो मरता ये ही है। जो बड़े बड़े बंगलों और ऊंची-ऊंची इमारतों में बैठे हैं वो जेबें भरते हैं नेताओं की ताकि नेता खुश रख सकें उन झोपड़ी में रहने वालो को (वोटों के लिए)। आम आदमी देखता है सब कुछ, चीखता है, चिल्लाता है और फिर चुपचाप वापस चला जाता है अपनी ज़िन्दगी में, बसों और ट्रेनों में धक्के खाने, नौकरी करने, टैक्स भरने, रोज़ तिल-तिल मरने और एक दिन एक धमाके के साथ भीड़ में गायब हो जाने के लिए।
गुलज़ार साहब के शब्दों में कहें तो उसकी अठन्नी सी आधी ज़िन्दगी कभी पूरा रुपया नहीं बन पाती।
गुलज़ार साहब के शब्दों में कहें तो उसकी अठन्नी सी आधी ज़िन्दगी कभी पूरा रुपया नहीं बन पाती।
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